Thursday, June 17, 2010
Sunday, May 2, 2010
किसके लिए जीते हैं.....
मेरी बडी बिटिया जब नन्हीं-सी थी, कोई भी सामान लाते, तो छोटी बहन व भाइयों को दे देती थी। हम कहीं जाते, तो उन दोनो को एक मिनट भी न छोडती - माँ जैसी ‘केयर’ करती। आज वो बडे पद पर काम करती है। आठ-नौ लाख का सालाना पैकेज पाती है। 10-12 लाख का पैकेज दामाद पाता है। पिछले दिनो वह गर्भ से थी। मैंने पूछा था- ‘छुट्टी कब से ले रही हो’ ? ‘वही दो-ढाई महीने पहले से’ ... उसने कहा था। सारी योजना सही बनी है, का विश्वास था ही। जब दो-ढाई महीने रह गये, तो पूछने पर बताया - सोचती हूँ, इधर ज्यादा काम कर लूँ, ताकि बाद में बच्चे के साथ ज्यादा रह सकूँ...। मुझे तब और अच्छा लगा था…। लेकिन यह क्या... वो तो काम करती ही गयी। मेरे पूछने पर बता देती – ‘सब ठीक तो है। डॉक्टर भी ऑफिस जाने में कुछ हर्ज नहीं बता रहे है’। जब प्रसूति को चन्द दिन ही रह गये और वह ऑफिस जाती... मैं पूरे दिन बेहद परेशान रहता। कैसे-कैसे ख्याल मन में आते...कभी फोन या एसएमएस करके हालचाल लेते रहता, पर क्या कहता इतने पढे-लिखे-कमाते बच्चों से ! फिर, कोई विचार भी तो नहीं होता अपने पास - सिवाय आशंका, चिंता के...। अन्त में जिस शुक्रवार को आखिरी दिन काम करके वह आयी - शनि-रवि-सोम को छुट्टी थी। और मंगल को मैं एक सुन्दर से नाती का नाना बन गया। उस खुशी में भूल ही गया और जब बाद में याद आया, तो फूले न समाया कि बिटिया ने एक भी दिन छुट्टी नहीं ली...। नर्सिंग होम से घर आने पर खुशियों का मौसम था...। ऐसी बहार पहली बार घर में थी... समझ में आया कि बेटे-बेटी से ज्यादा खुशी पोते-नाती के पैदा होने पर होती है। मैं कुछ अतिरिक्त ही खुशी में रहा होऊंगा, जब उस दिन संयोग से सभी बच्चे जुटे थे और मैंने पूछा था - बेटा, अब क्या प्रोग्रैम है आगे का …? बिटिया ने बताया - ‘मैं तो रेस्ट करूंगी छुट्टी भर - कोई पाँच महीने...। पर प्रभु को दो ऑफ़र हैं - एक तो यू.एस. का है और दूसरा बंगलोर का...। देखो, कौन सा ज्वाइन करता है...’। ‘तो यह बाहर रहेगा ? तुम बच्चे को लेकर अकेली रहोगी’? आश्चर्य छिप न सका होगा मेरा ! तभी उसने आगे कहा ...‘पॉप, इसमें इतना क्यों सरप्राइज़ लग रहा है आप को ? क्या मैं नहीं सँभाल सकती...! उसे जाना तो होगा ही... इतना अच्छा मौका इतनी जल्दी नहीं मिलता...’। फिर शायद मेरे चेहरे पर उदासी आ गयी हो, जिसे भाँपकर ही जैसे सांत्वना देती हुई बोली - ‘ज्यादा करके बंगलोर ही ज्वाइन करेगा और बीच-बीच में आ जाया करेगा...’। इस योजना में कोई ‘बदलाव नहीं होगा’, को जानते तथा ‘नहीं होना चाहिए’, को किसी हद तक मानते हुए भी मेरे मुँह से जाने कैसे निकल गया -“बेटा, ऑफ़र तो शायद फिर मिल जाये, पर यह बच्चा फिर नहीं होगा - दो महीने का , चार, छह, आठ व दस महीनों का...। क्या इसे लेकर तुम लोगों का मन उस तरह नहीं होता, जैसे तुम लोगों को लेकर हमारा हुआ करता था - कि उसके हर भाव, हर बदलाव, हर विकास, हर हुलास... को देखें, सँजोयें...अपनी निधि बना लें...” ....‘पॉप, आप भी क्या...मैं हूँ ना...’ - बीच में ही बोल पडी बिटिया - ‘लाइव कैमरा ले लेंगे... रोज़-रोज़ के फ़ोटोज़ मेल करते रहेंगे... अब वो ज़माना थोडे न रहा पॉप कि सामने रहने...’ और भी बहुत कुछ कहती रही वह - बडी शालीनता से, बडी समझदारी से.... चाहता तो था कि कुछ कहूँ - समझाऊँ – “दोनो मिलकर डेढ-पौने दो लाख महीने का कमा ही रहे हो...। क्या कम है तीन प्राणियों के लिए...! अब इस ऑफर से दो-ढाई लाख कमाने लगोगे...फिर अगला ऑफर आयेगा... फिर आयेगा... आता ही रहेगा...। फिर जीयोगे कब...? पर हिम्मत न पडी सब कहने की...। उसके ‘पॉप’ का बोध सर पे तारी हो रहा था...। सो, बुदबुदाहट यूँ निकली -‘किसके लिए जीते हैं, किसके लिए ‘खपते’ हैं.... बारहा ऐसे सवालात पे रोना आया..’। ...और इसे सुननेवाला भी मैं अकेला ही रहा.... ....क्योंकि तब तक मौका पाकर बिटिया भी खिसक चुकी थी...बाकी सब तो पहले ही कमरे से निकल चले थे...। --- --- ---मेरी बडी बिटिया जब नन्हीं-सी थी, कोई भी सामान लाते, तो छोटी बहन व भाइयों को दे देती थी। हम कहीं जाते, तो उन दोनो को एक मिनट भी न छोडती - माँ जैसी ‘केयर’ करती। आज वो बडे पद पर काम करती है। आठ-नौ लाख का सालाना पैकेज पाती है। 10-12 लाख का पैकेज दामाद पाता है। पिछले दिनो वह गर्भ से थी। मैंने पूछा था- ‘छुट्टी कब से ले रही हो’ ? ‘वही दो-ढाई महीने पहले से’ ... उसने कहा था। सारी योजना सही बनी है, का विश्वास था ही। जब दो-ढाई महीने रह गये, तो पूछने पर बताया - सोचती हूँ, इधर ज्यादा काम कर लूँ, ताकि बाद में बच्चे के साथ ज्यादा रह सकूँ...। मुझे तब और अच्छा लगा था…। लेकिन यह क्या... वो तो काम करती ही गयी। मेरे पूछने पर बता देती – ‘सब ठीक तो है। डॉक्टर भी ऑफिस जाने में कुछ हर्ज नहीं बता रहे है’। जब प्रसूति को चन्द दिन ही रह गये और वह ऑफिस जाती... मैं पूरे दिन बेहद परेशान रहता। कैसे-कैसे ख्याल मन में आते...कभी फोन या एसएमएस करके हालचाल लेते रहता, पर क्या कहता इतने पढे-लिखे-कमाते बच्चों से ! फिर, कोई विचार भी तो नहीं होता अपने पास - सिवाय आशंका, चिंता के...। अन्त में जिस शुक्रवार को आखिरी दिन काम करके वह आयी - शनि-रवि-सोम को छुट्टी थी। और मंगल को मैं एक सुन्दर से नाती का नाना बन गया। उस खुशी में भूल ही गया और जब बाद में याद आया, तो फूले न समाया कि बिटिया ने एक भी दिन छुट्टी नहीं ली...। नर्सिंग होम से घर आने पर खुशियों का मौसम था...। ऐसी बहार पहली बार घर में थी... समझ में आया कि बेटे-बेटी से ज्यादा खुशी पोते-नाती के पैदा होने पर होती है। मैं कुछ अतिरिक्त ही खुशी में रहा होऊंगा, जब उस दिन संयोग से सभी बच्चे जुटे थे और मैंने पूछा था - बेटा, अब क्या प्रोग्रैम है आगे का …? बिटिया ने बताया - ‘मैं तो रेस्ट करूंगी छुट्टी भर - कोई पाँच महीने...। पर प्रभु को दो ऑफ़र हैं - एक तो यू.एस. का है और दूसरा बंगलोर का...। देखो, कौन सा ज्वाइन करता है...’। ‘तो यह बाहर रहेगा ? तुम बच्चे को लेकर अकेली रहोगी’? आश्चर्य छिप न सका होगा मेरा ! तभी उसने आगे कहा ...‘पॉप, इसमें इतना क्यों सरप्राइज़ लग रहा है आप को ? क्या मैं नहीं सँभाल सकती...! उसे जाना तो होगा ही... इतना अच्छा मौका इतनी जल्दी नहीं मिलता...’। फिर शायद मेरे चेहरे पर उदासी आ गयी हो, जिसे भाँपकर ही जैसे सांत्वना देती हुई बोली - ‘ज्यादा करके बंगलोर ही ज्वाइन करेगा और बीच-बीच में आ जाया करेगा...’। इस योजना में कोई ‘बदलाव नहीं होगा’, को जानते तथा ‘नहीं होना चाहिए’, को किसी हद तक मानते हुए भी मेरे मुँह से जाने कैसे निकल गया -“बेटा, ऑफ़र तो शायद फिर मिल जाये, पर यह बच्चा फिर नहीं होगा - दो महीने का , चार, छह, आठ व दस महीनों का...। क्या इसे लेकर तुम लोगों का मन उस तरह नहीं होता, जैसे तुम लोगों को लेकर हमारा हुआ करता था - कि उसके हर भाव, हर बदलाव, हर विकास, हर हुलास... को देखें, सँजोयें...अपनी निधि बना लें...” ....‘पॉप, आप भी क्या...मैं हूँ ना...’ - बीच में ही बोल पडी बिटिया - ‘लाइव कैमरा ले लेंगे... रोज़-रोज़ के फ़ोटोज़ मेल करते रहेंगे... अब वो ज़माना थोडे न रहा पॉप कि सामने रहने...’ और भी बहुत कुछ कहती रही वह - बडी शालीनता से, बडी समझदारी से.... चाहता तो था कि कुछ कहूँ - समझाऊँ – “दोनो मिलकर डेढ-पौने दो लाख महीने का कमा ही रहे हो...। क्या कम है तीन प्राणियों के लिए...! अब इस ऑफर से दो-ढाई लाख कमाने लगोगे...फिर अगला ऑफर आयेगा... फिर आयेगा... आता ही रहेगा...। फिर जीयोगे कब...? पर हिम्मत न पडी सब कहने की...। उसके ‘पॉप’ का बोध सर पे तारी हो रहा था...। सो, बुदबुदाहट यूँ निकली -‘किसके लिए जीते हैं, किसके लिए ‘खपते’ हैं.... बारहा ऐसे सवालात पे रोना आया..’। ...और इसे सुननेवाला भी मैं अकेला ही रहा.... ....क्योंकि तब तक मौका पाकर बिटिया भी खिसक चुकी थी...बाकी सब तो पहले ही कमरे से निकल चले थे...। --- --- ---
अब समय है पुनर्नियोजन का..........
पिछले दो वर्षों से पूरी दुनिया में आर्थिक मंदी को लेकर हाहाकार मची रही परंतु भारतीय अर्थव्यवस्था ने लचीलेपन के कारण स्वयं को बचाए रखा। हमारे लिए अच्छी खबर यह रही कि पिछले जुलाई व सितंबर वाली तिमाही में हमारी अर्थव्यवस्था की विकास दर 7.9 प्रतिशत रही जबकि अनुमान 6.3 प्रतिशत था। इससे स्पष्ट हो जाता है कि हमारी अर्थव्यवस्था तेजी से विकास की राह पर है परंतु इसके अतिरिक्त अन्य क्षेत्रों की तरफ देखें तो मंदहाली के अलावा कुछ भी दिखाई नही देता। आम जन के लिए खाने- पीने, बिजली, परिवहन से लेकर उनकी सुरक्षा व्यवस्था में सुधार तो हो रहे हैं लेकिन उनकी रफ्तार काफी धीमी है। देश में जो प्रगति की लहर देखने को मिल रही है, उसे महसूस कर एक पल तो मन खुश हो जाता है। मतदाताओं में विकास के प्रति सोच पैदा हो रही है। उसी का नतीजा हाल ही में संपन्न हुए चुनावों में स्पष्ट हो जाता है। पूरे देश में परिवर्तन की लहर दौड़ रही है। हर जगह नया जोश देखने को मिल रहा है। बस आवश्यकता है तो इस जोश को बनाए रखने की। यही जोश हमारे सपनों को साकार करवा सकता है अगर उचित जगह व उचित समय इस्तेमाल किया जाए। पूर्व राष्ट्रपति ए.पी.जे अब्दुल कलाम का कहना है कि 2020 तक हम पूर्ण रूप से विकसित हो जाएंगे। उनके इस कथन में आत्मविश्वास तो है परंतु पूर्ण होने के संकेत कम ही लगते हैं।नव वर्ष के समय दैनिक हिंदुस्तान में छपा उनका लेख साफ संकेत देता है कि अभी हमें बहुत कड़ी मेहनत करने की आवश्यकता है। उनका कहना है कि 2010 की शुरूआत हो चुकी है। अब हमारे पास केवल एक दशक का समय बचा है। इन 10 सालों में हमें अपनी राजनीतिक तंत्र, समाजिक तंत्र, कृर्षि तंत्र आदि पर नये सिरे से नियोजन करना होगा। कुछ नया व हटकर करने की ललक, दृढ संकल्प व इच्छा शक्ति को प्रत्येक व्यकित अपनाने का संकल्प ले। विकास की आड़ में अनेकों बुराईयां पनप रही हैं। इनमें मुख्य हैं गरीबी, किसान की दूर्दशा, नक्सलवाद, मिलावट व भ्रष्टाचार। इनको लेकर पुरे देश में चिंता तो है क्योंकि मीड़िया का विस्तार वह पहुंच बडी तेजी से पूरे देश को अपने आगोश मे ले रही है। अर्थात हर गली मोड़ यहां भी दो या अधिक व्यकित खड़े होते है बातचीत का विषय यह समस्याएं ही होती है। परंतु कोई ठोस हल निकलकर सामने नहीं आ रहे। भ्रष्टाचार तो जैसे हमारे खून में ही घुल चुका है। प्रत्येक क्षेत्र में भ्रष्टाचार के बढ रहे मामले बहुत चिंताजनक बात है। छोटे से छोटे पद वाला चैकीदार व उच्च पदों पर आसीन अफसरों तक सब रिश्वत के बगैर काम करना तो दूर काम की तरफ देखते भी नही। प्रत्येक व्यक्ति भलीभांति जानता है कि इससे भला नहीं बुरा ही हो रहा है। वह दूसरों को तो सीख दे रहा है परंतु खुद उस सीख को अपनाता नहीं है। इसके उत्तर में उसका कहना होता है कि समय के अनुसार चलना पड़ता है । हालात उसे ऐसा करने को मजबूर करते है। उच्च पदों पर आसीन लोगों को उच्च पदों का गरूर छोड़कर आम जन को अपने साथ लेकर चलने की बात गांठ बांध लेनी चाहिए। वे खुद तो प्रगति कर ही रहे हैं परंतु देश की दो तिहाई जनसंख्या जिसके पास दो जून के खाने की व्यवस्था भी नहीं है, उनकी तरफ कोई ध्यान नही देता। विकास की सभी योजनाएं उनके द्वारा जा उन्हें ध्यान में रखकर ही बनाई जाती है। यही देश में गरीबी बडा रही है और गरीबी से निकल रहे है विरोध के स्वर। इन स्वरों को नाम दे दिया जाता है नक्सलवाद, माओवाद का। हाल ही में देश के कोने-कोने से उठ रही अलग व छोटे राज्यों की मांगें भी सरकार की गरीब विरोधी नीतियों का ही नत्तीजा हैं। वही 1966-67 में आई हरित क्रांति देश के अन्नदाता के लिए एक बड़ी उम्मीद की किरण थी। वह क्रांति भी हमारे देश के कृर्षि वर्ग के लिए नाकाफी रही इसका अंदाजा हम मौजुदा किसानी के मंदहाली हालातों से लगा सकते हैं। यहां भी फायदा बड़े किसयनों या साहूकारों का ही हुआ। छोटे किसानों के लिए तो हालात और कठिन होते चले गए। अतऋ उपरोक्त कथनों से बिल्कुल स्पष्ट हो जाता है कि यहां से नीतियां बनती है वहां बहु मात्रा में खामियां हैं। रही सही कसर आगे नीतियां क्रियानवन वाले अधिकारियों का पैसा प्रेम निकाल देता है। आम आदमी तो बस हाथ मलता ही रह जाता है। इन्हीं समस्याओं के हल ही हमारे 2020 तक महाशक्ति बनने के सपने को साकार कर सकते हैं।
ललित पोपली
ललित पोपली
हिन्दी पर राजनीति क्यों........
हिन्दी बोलना हमारा अधिकार है। हिन्दी भाषा में वो शक्ति और मिठास है कि प्रत्येक बोलने वाले में तो उत्साह भरती ही है साथ में सुनने वाला भी मंत्रमुग्ध होए बिना नही रह सकता। इस बात कि पुष्टि समय समय पर हुई है। चाहे वह विवेकानंद का अमेरिकी सम्मेलन में संबोधन हो या अटल बिहारी के भाषन ऐसे अनेकों उदाहरण इतिहास के पन्नों में दर्ज हैं। आज हमें आजाद हुए ६० सालों से भी ज्यादा वक्त हो गया है परन्तु अभी तक हम हिन्दी को अपने मनों में नही बसा पाए हैं । अधिकतर इसका सबसे बडा दोषी अंग्रेजी को ही मानते है। क्या इस तरह किसी दूसरी भाषा को कसूरवार बनाकर हमारा लाभ हो सकता है। बिल्कुल नही अगर ऐसा होना होता तो आज हिन्दी की स्थिती अंग्रेजी से बेहतर होती। हमें कब समक्ष में आएगा कि अनेक भाषाओं का ज्ञाता होना हमारी कमजोरी नही ताकत है। भिन्न भाषायों का ज्ञान ही विभिन्न देशों के रिश्तों में मधुरता ला सकता है। क्योंकि दूसरो से मधुर व गहरे सबंध बनाने में संचार यानि आमने सामने की बातचीत का होना बहुत आवश्यक होता है। एक दूसरे के साथ दुःख सुख बांटना दिलों को जोड़ता है। लेकिन दूसरी भाषाएं सीखने की तत्परता में अपनी भाषा को भूल जाना भी ठीक नही। भारतीय होने के नाते हिन्दी हमारी प्राथमिकता होनी चाहिए,ताकि हमारी आने वाली पीढ़ियां हिन्दी बोलने में अपनी बेइज्जती नहीं गर्व महसूस करें। इसके लिए हम हिन्दी से जुडे़ कई कार्यकम जैसे हिन्दी दिवस व हिन्दी पखवाड़ा मनाते है। राष्टी्रय भाषा हिन्दी होने के नाते हमारा अधिकार है कि हम इस भाषा का प्रयोग आजादी से कभी भी कहीं भी कर सकते है। ऐसे में अगर किसी नेता को हिन्दी में शपथ लेने से रोका जाता है तो हम समक्ष सकते है कि देश के भीतर भी हिन्दी के कई दुश्मन है। यह दुश्मन कोई ओर नही ब्लकि वह नेता हैं जिनका चुनाव हम देश व समाज की बेहतरी के लिए करते हैं। मैं यह लेख लिख रहा हूं क्योंकि महाराष्ट्र्र विधानसभा में मनसे के विधायकों ने जो करतूत की वह बहुत निंदनीय थी। मैं समक्षता हूं कि उस दृश्य को देखकर या पढ़कर केवल में ही नही बल्कि पूरा देश दर्द में था। राज ठाकरे कि पार्टी ने ऐसा पहली बार नहीं किया । इससे पहले भी वह हिन्दी बोलने वालों तथा उत्तर भारतियों की खिलाफत कर चुके हैं। कब तक ये नेता अपने फायदे के लिए जनता व देश की भावनाओं से खिलवाड़ करते रहेंगे। वे तो बस इसी तरह सुर्खियां बटोरना चाहते हैं। नेताओं के इन बुरे मंनसुबो पर रोक आम जनता यानि मतदाता ही लगा सकते है। अब समय आ गया है कि ऐसे नेताओं से डरे नहीं बल्कि मुंहतोड़ जवाब दें।
ललित पोपली
ललित पोपली
Saturday, May 1, 2010
नशा अर्थ और काम.........
कहने की आवश्यकता ही नहीं कि नशा मानवीय व्यक्तित्व के लिए कितना घातक है। नशे के सेवन से अनेक प्रकार से मानसिक विकार पैदा होते है। इतना ही नहीं इसके इलावा नशे के सेवन से धर्म, अर्थ और काम का भी नाश होता है। हमारे सामने सवाल यह खड़ा होता है कि मनुष्य आखिर नशा करता क्यूं है? शराब, चरस, गांजा, अफीम तथा भांग का सेवन करके कुछ देर के लिए व्यक्ति सुख और आन्नद की अनुभूति करता है। मनुष्य आखिर बार-बार सुख और आन्नद की प्राप्ति के लिए बार-बार नशे का सेवन करता है। वास्तव में यही मनुष्य की आवृति उसकी आदत बन जाती हैं। मनुष्य नशे का सेवन करके एक दिन उसके पूर्ण वश में हो जाता हैं। व्यक्ति की यह परवशता असे नशेड़ी बना देती हैं। सीधी सी बात है कि नशेड़ी व्यक्ति नशा करने का बहाना ढुंढता है। यह अपनी इस आसुरी प्रवृत्ति से अपनी कुवृत्तियों पर पर्दा डालना चाहता है। यही कारण है कि वह त्यौहारो आदि पर जम कर नशा करता है। मद्यपान एक व्यापक प्रवृत्ति हैं। नशे के लिए अमीर-गरीब का कोई महत्व नहीं। सभी अपनी-अपनी आर्थिकस्थिति के अनुसार ही नशा करते है। गरीब वर्ग जहंा मामूली नशा करता है वहीं पर अमीर वर्ग उच्च श्रेणी के मादक पदार्थाे का सेवन करता है। अब नशा चाहे जो भी हो उच्च श्रेणी का हो या नीचे तबके का आखिर मानसिक और शारीरिक स्थिति तो एक जैसी ही होगी। नशे का सेवन अनेक प्रकार की सामाजिक बुराईयों को भी जन्म देता है। सामाजिक बुराई के पक्ष में महात्मा गांधी ने कहा है कि ‘‘शराब सब बुराईयों की जननी हैं। इसकी आदत राष्ट्र को विनाश के कगार पर लाकर खड़ा कर देगी।’’
अब हमारे सामने सवाल यह उठता है कि नशाखोरी रोकी कैसे जाएं? किस प्रकार देश को नशा मुक्त बनाया जाएं? पुरातन काल से ही नशे के सेवन पर रोक के प्रयास होते चले आ रहे हैं। पुराणों में मद्यपान को बहुत बड़ा अनर्थकारी बताया गया है। आज सरकार द्वारा उठाए गए कदम कारगर साबित न हो सके। चाहे वो केन्द्रीय सरकार हो या फिर राज्य सरकार। सरकार नशे को चाह कर भी नहीं रोक सकती क्योंकि अगर सरकार ने ऐसा किया तो देश को उद्योगिक क्षेत्र में बड़ी हानि का सामना करना पड़ सकता है। ऐसा नहीं है कि सरकार ने नशे को रोकने का प्रयास नहीं किया। नशे को रोकने का प्रयास तो स्वतन्त्रता मिलने के उपरान्त ही शुरू हो गया था। केन्द्रीय सरकार और राज्य सरकारों के तमाम नियमों के बाद भी शराब तथा अन्य नशों का सेवन जनमानस में पूर्णता के साथ फल-फूल रहा है। अब तो यह कहना भी गलत नही होगा कि मद्यपान गौरव और आधुनिकता का प्रतीक बन गया है। जहां मद्यपान को कम होना चाहिए वहीं इसमें दिन-प्रतिदिन बढ़ोतरी हुई है। हरियाणा का प्रत्येक व्यक्ति जानता ही है कि शराबबन्दी के समय अपराध दर बढ़े थे। सरकार के इस काले कानून में (शराबीयों के लिए) राजस्व का नुक्सान होना ही था लेकिन शराबमाफियों ने शराबीयों के लिए शराब की कोई कमी नहीं छोड़ी। फलस्वरूप शराबबंदी के दुष्परिणामों को देख कर सरकार को इस कानून से मुंह की खानी पड़ी। मद्यपान की विसंगती और बुराई से प्रत्येक व्यक्ति परिचित है। फिर ऐसा क्यों ? प्रत्येक जागरूक व्यक्ति चाहता है देश इस बुराई से मुक्त हो फिर ऐसा क्यों ? फिर ऐसा क्यों ? यह सवाल हमारे सामनें तन कर आज भी खड़ा है। अगर हमारे देश को इस बुराई से मुक्ति पानी है तो सरकार को रास्जव-हानि और सत्ता हानि की चिंता किए बगैर कठोर-से-कठोर कदम उठाने होंगे। मादक पदार्थों के सारे स्त्रौतो को समाप्त करने का जी तोड़ प्रयास करना होगा। लोगों की अपनी मानसिकता में परिवर्तन करना होगा तभी लोग अंगूर की बेटी के अत्याचारों से निजात पा सकेंगे।
ललित पोपली
अब हमारे सामने सवाल यह उठता है कि नशाखोरी रोकी कैसे जाएं? किस प्रकार देश को नशा मुक्त बनाया जाएं? पुरातन काल से ही नशे के सेवन पर रोक के प्रयास होते चले आ रहे हैं। पुराणों में मद्यपान को बहुत बड़ा अनर्थकारी बताया गया है। आज सरकार द्वारा उठाए गए कदम कारगर साबित न हो सके। चाहे वो केन्द्रीय सरकार हो या फिर राज्य सरकार। सरकार नशे को चाह कर भी नहीं रोक सकती क्योंकि अगर सरकार ने ऐसा किया तो देश को उद्योगिक क्षेत्र में बड़ी हानि का सामना करना पड़ सकता है। ऐसा नहीं है कि सरकार ने नशे को रोकने का प्रयास नहीं किया। नशे को रोकने का प्रयास तो स्वतन्त्रता मिलने के उपरान्त ही शुरू हो गया था। केन्द्रीय सरकार और राज्य सरकारों के तमाम नियमों के बाद भी शराब तथा अन्य नशों का सेवन जनमानस में पूर्णता के साथ फल-फूल रहा है। अब तो यह कहना भी गलत नही होगा कि मद्यपान गौरव और आधुनिकता का प्रतीक बन गया है। जहां मद्यपान को कम होना चाहिए वहीं इसमें दिन-प्रतिदिन बढ़ोतरी हुई है। हरियाणा का प्रत्येक व्यक्ति जानता ही है कि शराबबन्दी के समय अपराध दर बढ़े थे। सरकार के इस काले कानून में (शराबीयों के लिए) राजस्व का नुक्सान होना ही था लेकिन शराबमाफियों ने शराबीयों के लिए शराब की कोई कमी नहीं छोड़ी। फलस्वरूप शराबबंदी के दुष्परिणामों को देख कर सरकार को इस कानून से मुंह की खानी पड़ी। मद्यपान की विसंगती और बुराई से प्रत्येक व्यक्ति परिचित है। फिर ऐसा क्यों ? प्रत्येक जागरूक व्यक्ति चाहता है देश इस बुराई से मुक्त हो फिर ऐसा क्यों ? फिर ऐसा क्यों ? यह सवाल हमारे सामनें तन कर आज भी खड़ा है। अगर हमारे देश को इस बुराई से मुक्ति पानी है तो सरकार को रास्जव-हानि और सत्ता हानि की चिंता किए बगैर कठोर-से-कठोर कदम उठाने होंगे। मादक पदार्थों के सारे स्त्रौतो को समाप्त करने का जी तोड़ प्रयास करना होगा। लोगों की अपनी मानसिकता में परिवर्तन करना होगा तभी लोग अंगूर की बेटी के अत्याचारों से निजात पा सकेंगे।
ललित पोपली
Tuesday, February 10, 2009
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